MTNL-BSNL के विलय पर देर से आई सरकार, पर क्या यह दुरुस्त भी है?

सरकार ने महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL) और भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) के विलय का निर्णय लिया है. हालांकि यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है, जब पानी सिर से ऊपर गुजर चुका है. हो सकता है कि इससे निजी कंपनियों को कुछ प्रतिस्पर्धा मिल जाए और उन्हें कॉल रेट या पैकेज में कमी करना पड़े लेकिन विलय के बाद बनी नई सरकारी कंपनी कितने समय तक टिक पाएगी? इससे दोनों कंप‍नियों और उसके कर्मचारियों का कितना भला होगा? यह अभी भविष्य के गर्भ में है.

बहुत देर कर दी
जानकारों का कहना है कि यह काम काफी पहले होना चाहिए था. दोनों कंपनियां ऑपरेशनल लागत के मोर्चे पर काफी नुकसान उठा रही हैं. दोनों कंपनियों के विलय और प्रस्तावित स्वैच्छ‍िक सेवानिवृत्ति योजना (VRS) के पैकेज से इस लागत पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है. लेकिन यह गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में इस कंपनी को फिर से मुकाबले में खड़ा करने के लिए काफी नहीं होगा.
सरकार ने बुधवार को एमटीएनएल और बीएसएनएल के विलय के साथ इनके पुनुरुद्धार के जिस पैकेज का ऐलान किया है, इसमें सॉवरेन बॉन्ड से 15,000 करोड़ रुपये जुटाने की योजना भी है. इसके अलावा अगले चार साल में इनके रियल एस्टेट जैसे एसेट की बिक्री और वीआरएस से करीब 38,000 करोड़ रुपये बचाए जा सकेंगे. बीएसएनएल के पास करीब 70,746 करोड़ रुपये की परिसंपत्त‍ि है. 
कभी टेलीकॉम जगत में था दबदबा
कभी बीएसएनएल एक नवरत्न सार्वजनिक कंपनी थी और एमटीएनएल का भी दो मेट्रो शहरों के टेलीकॉम सेवा पर एकाध‍िकार था. लेकिन अब इसको 90,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा हो चुका है. रिलायंस जियो और एयरटेल जैसे सक्षम दिग्गज निजी खिलाड़ियों के सामने सुस्त सरकारी कंपनी बीएसएनएल कहीं टिक नहीं पाई. अब करीब 1,76,000 कर्मचारियों वाली बीएसएनल सफेद हाथी ही साबित हुई और निजी कंपनियों के सामने इसका टिकना मुश्किल था.
बीएसएनएल का गठन 1 अक्टूबर, 2000 को हुआ था और यह मेट्रो शहरों के अलावा पूरे देश में टेलीकॉम सेवाएं और नेटवर्क मैनेजमेंट सेवाएं प्रदान कर रही है. यह देश में टेलीकॉम सेवा देने वाली सबसे पुरानी कंपनी है. कई जानकार यह कहते हैं कि एक समय ऐसा था कि साल 2007-08 में सरकार बीएसएनएल को करीब 7 लाख करोड़ रुपये की भारी रकम में बेचकर टेलीकॉम कारोबार से बाहर निकल सकती थी, लेकिन आज हालत यह है कि बीएसएनएल के लिए सरकार को राहत पैकेज देना पड़ रहा है.
क्यों हुआ बंटाधार
असल में बीएसएनएल और एमटीएनएल का पहले देश में संचार जगत में एकाधिकार रहा है और इसकी वजह से इसके कर्मचारियों का माइंडसेट इसी तरह से काम करने का बना हुआ है, जबकि टेलीकॉम जगत में अब माहौल गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाला हो गया है और जियो ने तो एयरटेल, वोडाफोन जैसे निजी क्षेत्र के दिग्गजों को हिलाकर रख दिया है, ऐसे में ये पीएसयू कहां टिकने वाले हैं.
आईपीओ टालने के बाद अगले पांच साल में ही राजनीतिक दखल, समय के साथ बदलने की नाकामी, सरकारी निष्क्रिय तंत्र की वजह से एक मजबूत टेलीकॉम कंपनी की हालत इतनी खस्ता हो गई कि उसे राहत पैकेज मांगना पड़ गया. टेलीकॉम की दुनिया में जिस तरह की प्रतिस्पर्धा है उसे देखते हुए वही कंपनी टिक पा रही है जिसका नेटवर्क अपग्रेड है. बढ़िया नेटवर्क की वजह से जियो ने ही बाकी कंपनियों काफी ग्राहकों को हथिया लिया है.
साल 2006-07 में बीएसएनएल की कुल आय करीब 40,000 करोड़ रुपये थी और शुद्ध मुनाफा 8,000 करोड़ रुपये था. 2007-08 के बाद से ही कंपनी मुश्किल में आ गई और अगले कुछ ही वर्षों में यह घाटे में चली गई. वित्त वर्ष 2012 में कंपनी को 9,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. कंपनी की आमदनी भी घटकर 28,000 करोड़ रुपये से कम हो गया, जो 2006-07 के मुकाबले 30 फीसदी कम थी.
यही नहीं, पांच साल पहले बीएसएनएल की आमदनी का 23 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों के वेतन पर दिया जा रहा था, लेकिन अब यह बढ़कर 48 फीसदी तक हो चुका है. कंपनी को कैश का एक बड़ा हिस्सा बीएसएनएल को 3जी और ब्रॉडबैंड वायरलेस स्पेक्ट्रम की खरीद में लगाना पड़ा.
कुप्रबंधन, नीतिगत देरी और सरकारी दखल का एक यह एक बेहतरीन उदाहरण है. बीएसएनएल की बाजार हिस्सेदारी घटकर महज 11.5 फीसदी रह गई है और मोबाइल सब्स‍क्राइबर के हिसाब से यह पांचवें स्थान पर पहुंच गया है. बढ़ती मांग की वजह से कंपनी अपनी क्षमता का विस्तार नहीं कर पाई.
यह भी आरोप लगाए जाते हैं कि निजी कंपनियों ने अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर ऐसी नीतियां बनवाईं जिससे बीएसएनएल को भारी नुकसान हुआ. इसमें सबसे प्रमुख उदाहरण था 4जी टेक्नोलॉजी काफी देर से मिलना. टेक्नोलॉजी अपग्रेड करने में कंपनी की नाकामी की वजह से उसे फायदे में रहने और अपने ऊंचे ARPU (औसत रेवेन्यू प्रति यूजर) को बनाए रखने में काफी मुश्किल हुई.  गलाकाट प्रतिस्पर्धा और फ्री वॉयस में जियो के आने के साथ-साथ डाटा की कीमत सस्ती होने से भारत के दूरसंचार क्षेत्र में कई छोटी-छोटी दूरसंचार कंपनियों की दुकानें बंद हो गईं और मौजूदा दौर में सिर्फ जियो, एयरटेल के साथ-साथ विलय कर चुकीं वोडाफोन और आइडिया रह गई हैं.
एमटीएनएल का गठन 1 अप्रैल, 1986 को हुआ था, जब सरकार देश के दो प्रमुख मेट्रो शहरों दिल्ली और मुंबई में टेलीकॉम नेटवर्क का विस्तार कर नई सेवाएं शुरू करने और रेवेन्यू हासिल करने की सोच लेकर आई थी. एमटीएनएल ने संयुक्त उद्यम यूनाइटेड टेलीकॉम लिमिटेड (UTL) के द्वारा नेपाल में भी कारोबार करती है. इसके अलावा, कंपनी 100 फीसदी सब्सिडियरी के साथ महानगर टेलीफोन मॉरिशस लिमिटेड (MTML) के नाम से मॉरिशस में भी कारोबार कर रही है. 1992 तक मुंबई और नई दिल्ली में टेलीकॉम सेवाओं में महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL) का एकाधिकार था. एमटीएनएल की बदहाली की वजहें भी वही थीं, जो बीएसएनएल की.
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सरकार ने मौका गंवाया!
जब बीएसएनएल और एमटीएनएल अपने शिखर पर थीं, तब सरकार के पास यह मौका था कि कुछ हिस्सेदारी बेचकर इसकी कार्यकुशलता को बढ़ाने की कोशिश की जाए, लेकिन तत्कालीन सरकार ऐसा करने में नाकाम रही. साल 2007-08 के पिछले शेयर बाजार में बूम के दौर में जब बीएसएनएल के आईपीओ लाने की तैयारी हो रही थी, तब इसका वैल्यूएशन करीब 100 अरब डॉलर (आज के हिसाब से करीब 7 लाख करोड़ रुपये) आंका जा रहा था. तब वोडाफोन ने तत्कालीन दिग्ग्ज कंपनी हच एस्सार को खरीदा था और हच एस्सार का वैल्यूशन सिर्फ 21 अरब डॉलर किया गया था, यानी बीएसएनएल का वैल्यूएशन इससे 5 से 6 गुना ज्यादा था. हालांकि कई वजहों से आईपीओ को टालना पड़ गया.
अब क्या है सरकार की योजना
अब सरकार MTNL और BSNL के विलय के साथ ही, 4जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन, कर्ज का पुनर्गठन, वीआरस के द्वारा कर्मचारी की लागत कम करने और एसेट बेचकर धन जुटाने जैसी योजना बना रही है. केंद्र सरकार ने भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) और महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) में नई जान फूंकने के लिए बुधवार को उनके विलय को हरी झंडी देते हुए उन्हें सॉवरेन बांड के माध्यम से 1,5000 करोड़ रुपये जुटाने की अनुमति प्रदान की. साथ ही, सार्वजनिक क्षेत्र की इन कंपनियों को 2016 के मूल्य पर 4जी स्पेक्ट्रम का आवंटन किया जाएगा.
उक्त स्पेक्ट्रम के लिए फाइनेंसिंग भारत सरकार द्वारा इन पीएसयू में 20,140 करोड़ रुपये मूल्य की पूंजी डालकर की जाएगी, इसके अलावा इस स्पैक्ट्रम मूल्य के लिए जीएसटी के तौर पर 3,674 करोड़ रुपये की राशि का वहन भी भारत सरकार द्वारा बजटीय संसाधनों के माध्यम से किया जाएगा. इस स्पेक्ट्रम आवंटन का उपयोग करते हुए, बीएसएनएल और एमटीएनएल 4जी सेवाएं उपलब्ध कराने, बाजार में प्रतिस्पर्धा करने तथा अपने विशाल नेटवर्क का उपयोग करते हुए ग्रामीण क्षेत्रों सहित देश भर में हाई स्पीड डाटा उपलब्ध कराने में समर्थ हो सकेंगे.
 लेकिन यह योजना अभी सिर्फ कागजों पर अच्छी लग रही है. लालफीताशाही, निष्क्रियता और योजनाओं को लागू करने में अक्षमता के पुराने इतिहास को देखते हुए सरकार के इस कदम को भी संदेह के साथ देखा जा रहा है कि यह दोनों कंपनियों के पुनरुद्धार में कितना कामयाब होगा.
क्या बंद करना है विकल्प?
4जी सेवाओं के लॉन्च के करीब पांच साल बाद सरकार को यह आभास हुआ कि बीएसएनएल और एमटीएनएल को भी इसकी जरूरत है. अब जब देश में 5जी का दौर आ रहा है, बीएसएनएल और एमटीएनल अभी 4जी भी नहीं अपना पाए हैं. इसलिए वह निजी कंपनियों को कितनी प्रतिस्पर्धा दे पाएंगी, इसको लेकर संदेह ही है. कई जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि सरकार इस तरह से कर्मचारियों को सम्मानजनक तरीके से बाहर निकलने का रास्ता दे रही है और अंतत: इसका ज्यादातर कामकाज बंद कर दिया जाएगा. बीएसएनल और एमटीएनएल, दोनों के लिए बड़े पैमाने पर मौजूद कर्मचारी एक बड़ी समस्या हैं, क्योंकि दोनों में जरूरत से ज्यादा कर्मचारी हैं. बीएसएनएल में कर्मचारियों की सैलरी का हिस्सा कुल आय का 75 फीसदी तक हो गया है, जबकि निजी कंपनियों में यह महज 3 से 5 फीसदी है. किसी जमाने में बीएसएनएल में 4 लाख कर्मचारी हुआ करते थे, जो अब घटकर महज 1.76 लाख हैं.
कई जानकार तो ऐसा मान रहा है कि बीएसएनएल और एमटीएनएल को बचाने की सरकारी कवायद पैसे की बर्बादी ही साबित होगी. कई जानकार इसलिए इन दोनों कंपनियों को बंद करने का समर्थन कर रहे हैं, जिसके लिए सरकार को बस एक बार कुल 1.2 लाख करोड़ रुपये खर्च कर (VRS और अन्य चीजों के लिए) छुटकारा पा लेना होगा. लेकिन सरकार ने अगर कुछ कदम उठाए हैं तो इसके किंतु-परंतु काफी सोचकर किए गए होंगे. कुल मिलाकर कहें तो बीएसएनल-एमटीएनएल सरकार के गले की हड्डी बन चुके हैं. इसलिए अब दुआ ही की जा सकती है कि बीएसएनएल और एमटीएनएल इस कोमा से बाहर आएं.
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